डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी हिंदी में (Biography of Dr. Sarvepalli Radhakrishnan in Hindi) : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (जन्म 5 सितंबर 1888 - मृत्यु 17 अप्रैल 1975 [उम्र 88 वर्ष]) : सन 1952 से 1962 तक भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति रहे। भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और एक आस्थावान हिंदू विचारक के रूप में राधाकृष्णन को जाना जाता था। उनके इन्हीं गुणों के कारण सन 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया था। उनके जन्मदिन 5 सितंबर को संपूर्ण भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। आज की इस पोस्ट के जरिए हम डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी पर प्रकाश डालने वाले हैं।
दोस्तों यहां कुछ लोगों के मन में यह सवाल आ रहा होगा कि - जब उनका नाम राधाकृष्णन था। तो वह अपने नाम के आगे 'सर्वपल्ली' क्यों लगाते थे?
तो दोस्तों अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने के पीछे एक कारण यह था कि - उनके पूर्वज पहले कभी 'सर्वपल्ली' नाम के गांव में रहते थे। 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरुट्टनी गांव की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन उनके पूर्वज यह चाहते थे कि - उनके नाम के साथ उनके जन्म स्थल के गांव का बोध भी सदैव होता रहे। इसी कारण से उनके परिजन अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे। आइए दोस्तों, अब हम आपको डॉ.राधाकृष्णन के विद्यार्थी जीवन के बारे में बताते हैं।
अपने 12 वर्षों के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्वपूर्ण अंश भी याद कर लिए और इसके लिए उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इसी उम्र में उन्होंने स्वामी विवेकानंद और अन्य महान विचारकों का भी अध्ययन किया। सन 1902 में उन्होंने मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) प्राप्त हुई। इसके पश्चात उन्होंने सन 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। उन्होंने अपने उच्च अंकों के कारण मनोविज्ञान, इतिहास और गणित में विशेष गुणवत्ता टिप्पणियाँ प्राप्त कीं। इसके अलावा, उन्हें मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज द्वारा छात्रवृत्ति दी गई थी। दर्शनशास्त्र ( Philosophy) में एम.ए. (M.A) करने के बाद 1916 में वह मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हो गए तथा कुछ समय बाद वह उसी कॉलेज में प्राध्यापक भी हुए। डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से पूरी दुनिया को भारतीय दर्शनशास्त्र से परिचित कराया। सम्पूर्ण विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गई। डॉ.राधाकृष्णन के विद्यार्थी जीवन को जानने के बाद आइए जानते हैं उनके दाम्पत्य जीवन को।
डॉ.राधाकृष्णन की पत्नी सिवाकामू परंपरागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। लेकिन, इसके बावजूद भी तेलुगु भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी। वह अंग्रेजी भाषा भी लिख पढ़ सकती थी। सन 1908 में राधाकृष्णन दंपत्ति के घर में एक पुत्री ने जन्म लिया और उसी वर्ष उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। शादी के 6 वर्ष बाद यानी सन 1909 में उन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण किया और इसका विषय भी दर्शनशास्त्र ही रहा।
अपने उच्च अध्ययन के दौरान अपनी निजी आमदनी को बढ़ाने के लिए वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करते रहे। सन 1908 में अपनी M.A. की उपाधि प्राप्त करने के लिए उन्होंने एक शोध लेख भी लिखा था। उस समय उनकी आयु 20 वर्ष थी। इसी वजह से शास्त्रों के प्रति उनकी ज्ञान जिज्ञासा और बढ़ गई। शीघ्र ही उन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहरा अध्ययन किया। इसके अलावा उन्होंने हिंदी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक आनंद से अध्ययन किया। आइए अब आपको बताते हैं, डॉ.राधाकृष्णन के हिंदू शास्त्रों के गहरे अध्ययन के बारे में।
डॉ.राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि - आखिर किस संस्कृति के विचारों में समझ है? और किस संस्कृति के विचारों में अज्ञानता है?
डॉ.राधाकृष्णन अपने अध्ययन में स्वाभाविक सहज ज्ञान से इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना शुरू किया कि - भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले गरीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते हैं। इसी कारणवश राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से इस बात को जान लिया कि - भारतीय अध्यात्म काफी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिंदुत्व की आलोचनाएं करना एक निराधार है। अपने इस अध्ययन से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि - भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है, जो हर प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है। आइए आपको बताते हैं - भारतीय संस्कृति के बारे में राधाकृष्णन ने क्या अध्ययन किया।
***वास्तविक रूप से इसी कारण डॉ. राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिंदुत्व की, की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। शायद इसीलिए कहा जाता है दोस्तों की - आलोचनाएं हमेशा शुद्धीकरण का कार्य करती हैं।
दोस्तों, लगभग सभी माताएं अपने बच्चों के भीतर उच्च संस्कार देखना पसंद करती हैं। इसीलिए वह अपने बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने तथा मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती रहती हैं। डॉ. राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया जाता है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिंदू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के बाद उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और भारतीय संस्कृति के काफी नजदीक हो गए।
डॉ.राधाकृष्णन को छात्रों से बेहद लगाव था। वह अपनी बुद्धि से परिपूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को भी देते थे। जिस भी विषय को वह पढ़ाते उससे पूर्व वह उस विषय का गहन अध्ययन करते थे। दर्शनशास्त्र (Philosophy) जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से बहुत ही सरल और रोचक तरीके से छात्रों को पढ़ाते और वह विषय छात्रों का प्रिय विषय बन जाता था। विद्यार्थियों के प्रति उनके प्रेम को देखते हुए हम इनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं।
सन 1912 में 'मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व' शीर्षक के साथ एक लघु पुस्तिका डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने प्रकाशित की। इस लघु पुस्तक में कक्षाओं में दिए गए व्यक्तियों का संग्रहण था। इसी पुस्तक के द्वारा उनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिए उनके पास शब्दों का अतुल भंडार तो था ही लेकिन उनकी स्मरण शक्ति भी असाधारण थी।
अखिल भारतीय कांग्रेस यह चाहती थी कि - डॉ. राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाए जाए। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि - डॉ. राधाकृष्णन के संभाषण वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 और 15 अगस्त 1947 की रात्रि को उस समय किया जाए, जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित किया जाना हो। डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन को यह निर्देश दिए गए थे कि - वह अपना संबोधन रात्रि ठीक 12:00 बजे समाप्त करें। क्योंकि, इसके बाद ही नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी। राधाकृष्णन ने बिल्कुल ऐसा ही किया और रात्रि ठीक 12:00 बजे अपने संबोधन को रोक दिया। इस बात की जानकारी पंडित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी को नहीं थी।
डॉ. राधाकृष्णन ने सबके मुंह पर ताला लगाते हुए यह साबित कर दिया कि - मास्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मन्त्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वे उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि 10 बजे के बाद उनके शयन का समय हो जाता था।
डॉ. राधाकृष्णन कभी भी नियमों के दायरे में बंधे नहीं थे। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तभी भी वह कक्षा में 20 मिनट देरी से आते थे और 10 मिनट पूर्व ही चले जाते थे। उनका कहना था कि - कक्षा में उन्हें जो व्याख्या देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में संपन्न हो जाता था। लेकिन, इसके बावजूद भी वह विद्यार्थियों के प्रिय तथा आदरणीय शिक्षक बने रहे।
अंततः सन 1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉ राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। उन्होंने उपराष्ट्रपति के रूप में राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार संभाला। यानी सन 1952 में वह भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति बनाए गए।
जिन लोगों को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की प्रतिभा पर शंका हो रही थी। उन सभी लोगों ने बाद में पंडित नेहरू के चयन को सार्थक समझा। क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने राधाकृष्णन को उनके कार्य व्यवहार के लिए काफी सराहा। उनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं।
***दोस्तों, 17 अप्रैल 1975 को डॉ. राधाकृष्णन का लम्बी बीमारी के बाद ह्रदय रुक जाने की वजह से मृत्यु हो गई और हमने इसी दिन भारत के एक एक महान राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, शिक्षाविद, विचारक को खो दिया।
हमें उम्मीद है दोस्तों - हमारे द्वारा दी गई है जानकारी आप सभी दोस्तों को बेहद पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर जरुर शेयर करेंगे। साथ ही साथ कमेंट बॉक्स में दी गई जानकारी के बारे में अपनी राय जरूर देंगे क्योंकि, दोस्तों पता है ना कमेंट बॉक्स आपका ही है।
Biography of Dr. Sarvapalli Radhakrishnan - Technical Prajapati |
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी
जन्म एवं परिवार
5 सितंबर 1988 को मद्रास से लगभग 64 कि.मी. दूर तमिलनाडु के तिरुट्टनी गांव में डॉ.राधाकृष्णन का जन्म हुआ था। जिस परिवार में उनका जन्म हुआ वह एक ब्राह्मण परिवार था। उनका जन्मस्थान भी एक पवित्र तीर्थ स्थल के रूप में विख्यात रहा है। डॉ.राधाकृष्णन के पिता का नाम 'सर्वपल्ली वीरासमियाह' और माता का नाम 'सीताम्मा' था। उनके पिता एक गरीब लेकिन विद्वान ब्राह्मण थे और वह राजस्व विभाग में काम करते थे। उनपर बहुत बड़े परिवार के पालन पोषण का दायित्व था। उनके 5 पुत्र और 1 पुत्री थी। इन संतानों में राधाकृष्णन का स्थान दूसरा था। वह बहुत ही कठिनाइयों के साथ अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे थे। इसी वजह से बालक राधाकृष्णन को बचपन में कोई विशेष सुख प्राप्त नहीं हुआ।दोस्तों यहां कुछ लोगों के मन में यह सवाल आ रहा होगा कि - जब उनका नाम राधाकृष्णन था। तो वह अपने नाम के आगे 'सर्वपल्ली' क्यों लगाते थे?
तो दोस्तों अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने के पीछे एक कारण यह था कि - उनके पूर्वज पहले कभी 'सर्वपल्ली' नाम के गांव में रहते थे। 18वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने तिरुट्टनी गांव की ओर निष्क्रमण किया था। लेकिन उनके पूर्वज यह चाहते थे कि - उनके नाम के साथ उनके जन्म स्थल के गांव का बोध भी सदैव होता रहे। इसी कारण से उनके परिजन अपने नाम के पूर्व 'सर्वपल्ली' धारण करने लगे। आइए दोस्तों, अब हम आपको डॉ.राधाकृष्णन के विद्यार्थी जीवन के बारे में बताते हैं।
विद्यार्थी जीवन
राधाकृष्णन का बचपन तिरुट्टनी और तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर बिता। उन्होंने प्रथम 8 वर्ष तिरुट्टनी में ही गुजारे। उनके पिता पुराने विचारों के तथा उनमें धार्मिक भावनाएं भी मौजूद थी। लेकिन, इसके बावजूद भी उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में सन 1896 से 1900 तक के मध्य अध्ययन के लिए भेज दिया। इसके बाद सन 1900 से 1904 तक की उनकी पढ़ाई वेल्लूर में हुई। इसके पश्चात उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की। वह बचपन से ही मेधावी (प्रतिभाशाली, चमकदार, प्रतिभावान) थे।अपने 12 वर्षों के अध्ययन काल में राधाकृष्णन ने बाइबिल के महत्वपूर्ण अंश भी याद कर लिए और इसके लिए उन्हें विशिष्ट योग्यता का सम्मान प्रदान किया गया। इसी उम्र में उन्होंने स्वामी विवेकानंद और अन्य महान विचारकों का भी अध्ययन किया। सन 1902 में उन्होंने मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति (स्कॉलरशिप) प्राप्त हुई। इसके पश्चात उन्होंने सन 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। उन्होंने अपने उच्च अंकों के कारण मनोविज्ञान, इतिहास और गणित में विशेष गुणवत्ता टिप्पणियाँ प्राप्त कीं। इसके अलावा, उन्हें मद्रास के क्रिश्चियन कॉलेज द्वारा छात्रवृत्ति दी गई थी। दर्शनशास्त्र ( Philosophy) में एम.ए. (M.A) करने के बाद 1916 में वह मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हो गए तथा कुछ समय बाद वह उसी कॉलेज में प्राध्यापक भी हुए। डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से पूरी दुनिया को भारतीय दर्शनशास्त्र से परिचित कराया। सम्पूर्ण विश्व में उनके लेखों की प्रशंसा की गई। डॉ.राधाकृष्णन के विद्यार्थी जीवन को जानने के बाद आइए जानते हैं उनके दाम्पत्य जीवन को।
दाम्पत्य जीवन
दोस्तों जैसे कि हम सभी को पता है कि - पुराने जमाने में लोगों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती थी। उस समय भी मद्रास के ब्राह्मण परिवारों में कम उम्र में ही शादी संपन्न कर दी जाती थी और राधाकृष्णन भी इससे बच ना सके। सन 1903 में जब उनकी आयु 16 वर्ष की थी। उनका विवाह उनके दूर की रिश्ते की बहन 'सिवाकामू' के साथ संपन्न हो गया। विवाह के समय उनकी पत्नी की उम्र केवल 10 वर्ष थी। अंततः 3 वर्ष बाद ही वह अपने पत्नी के साथ रहने लगे।डॉ.राधाकृष्णन की पत्नी सिवाकामू परंपरागत रूप से शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। लेकिन, इसके बावजूद भी तेलुगु भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी। वह अंग्रेजी भाषा भी लिख पढ़ सकती थी। सन 1908 में राधाकृष्णन दंपत्ति के घर में एक पुत्री ने जन्म लिया और उसी वर्ष उन्होंने कला स्नातक की उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त की और दर्शन शास्त्र में विशिष्ट योग्यता प्राप्त की। शादी के 6 वर्ष बाद यानी सन 1909 में उन्होंने कला में स्नातकोत्तर परीक्षा भी उत्तीर्ण किया और इसका विषय भी दर्शनशास्त्र ही रहा।
अपने उच्च अध्ययन के दौरान अपनी निजी आमदनी को बढ़ाने के लिए वह बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने का काम भी करते रहे। सन 1908 में अपनी M.A. की उपाधि प्राप्त करने के लिए उन्होंने एक शोध लेख भी लिखा था। उस समय उनकी आयु 20 वर्ष थी। इसी वजह से शास्त्रों के प्रति उनकी ज्ञान जिज्ञासा और बढ़ गई। शीघ्र ही उन्होंने वेदों और उपनिषदों का भी गहरा अध्ययन किया। इसके अलावा उन्होंने हिंदी और संस्कृत भाषा का भी रुचिपूर्वक आनंद से अध्ययन किया। आइए अब आपको बताते हैं, डॉ.राधाकृष्णन के हिंदू शास्त्रों के गहरे अध्ययन के बारे में।
हिन्दू शास्त्रों का गहरा अध्ययन
आखिर क्यों? डॉ राधाकृष्णन ने हिंदू शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। क्या वजह थी? तो दोस्तों, जैसे की हम सभी ने जाना कि डॉ.राधाकृष्णन की पढ़ाई क्रिश्चियन संस्थाओं में हुई थी। उस वक्त क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों के भीतर काफी गहराई तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गए। लेकिन, राधाकृष्णन में एक और परिवर्तन आया जो इन संस्थाओं के बदौलत ही था। कुछ लोग हिंदुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते और उनकी आलोचना किया करते थे। उनकी आलोचनाओं को राधाकृष्णन में एक चुनौती की तरह लिया और हिंदू शास्त्रों का गहन अध्ययन करना आरंभ किया कर दिया।डॉ.राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि - आखिर किस संस्कृति के विचारों में समझ है? और किस संस्कृति के विचारों में अज्ञानता है?
डॉ.राधाकृष्णन अपने अध्ययन में स्वाभाविक सहज ज्ञान से इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना शुरू किया कि - भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले गरीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते हैं। इसी कारणवश राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से इस बात को जान लिया कि - भारतीय अध्यात्म काफी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिंदुत्व की आलोचनाएं करना एक निराधार है। अपने इस अध्ययन से उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि - भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है, जो हर प्राणी को जीवन का सच्चा संदेश देती है। आइए आपको बताते हैं - भारतीय संस्कृति के बारे में राधाकृष्णन ने क्या अध्ययन किया।
भारतीय संस्कृति का अध्ययन
डॉ.राधाकृष्णन को भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के बाद यह भली-भांति पता चल गया था कि -- जीवन बहुत ही छोटा होता है। परंतु, इस छोटे से जीवन में व्याप्त खुशियां अनिश्चित हैं। इस कारण व्यक्ति को सुख दुख में समवृत्ति ( समभाव ) से रहना चाहिए।
- वास्तविकता में मृत्यु एक अटल सच्चाई है, जो अमीर-गरीब या किसी प्रकार के वर्ग का भेदभाव नहीं करती।
- सच्चा ज्ञान वही है, जो आपके अन्दर के अज्ञान को समाप्त कर सकता है।
- सादगीपूर्ण सन्तोषवृत्ति का जीवन अमीरों के अहंकारी जीवन से बेहतर है, जिनमें असन्तोष का निवास है। एक शान्त मस्तिष्क बेहतर है, तालियों की उन गड़गड़ाहटों से; जो संसदों एवं दरबारों में सुनायी देती हैं।
***वास्तविक रूप से इसी कारण डॉ. राधाकृष्णन भारतीय संस्कृति के नैतिक मूल्यों को समझ पाने में सफल रहे, क्योंकि वह क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिंदुत्व की, की गई आलोचनाओं के सत्य को स्वयं परखना चाहते थे। शायद इसीलिए कहा जाता है दोस्तों की - आलोचनाएं हमेशा शुद्धीकरण का कार्य करती हैं।
दोस्तों, लगभग सभी माताएं अपने बच्चों के भीतर उच्च संस्कार देखना पसंद करती हैं। इसीलिए वह अपने बच्चों को ईश्वर पर विश्वास रखने, पाप से दूर रहने तथा मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करने का पाठ पढ़ाती रहती हैं। डॉ. राधाकृष्णन ने यह भी जाना कि भारतीय संस्कृति में सभी धर्मों का आदर करना सिखाया जाता है और सभी धर्मों के लिए समता का भाव भी हिंदू संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का अध्ययन करने के बाद उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान को समझा और भारतीय संस्कृति के काफी नजदीक हो गए।
जीवन दर्शन
डॉ.राधाकृष्णन का मानना था की - संपूर्ण विश्व एक विद्यालय है और शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सही ढंग से उपयोग किया जा सकता है। अंतः विश्व को एक इकाई मानकर शिक्षा का प्रबंध करना चाहिए। ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था की -डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
मानव को एक होना चाहिए। मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति तभी सम्भव है जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शान्ति की स्थापना का प्रयत्न हो।
डॉ.राधाकृष्णन को छात्रों से बेहद लगाव था। वह अपनी बुद्धि से परिपूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को भी देते थे। जिस भी विषय को वह पढ़ाते उससे पूर्व वह उस विषय का गहन अध्ययन करते थे। दर्शनशास्त्र (Philosophy) जैसे गंभीर विषय को भी वह अपनी शैली से बहुत ही सरल और रोचक तरीके से छात्रों को पढ़ाते और वह विषय छात्रों का प्रिय विषय बन जाता था। विद्यार्थियों के प्रति उनके प्रेम को देखते हुए हम इनके जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं।
पेशेवर जिंदगी
सन 1909 में 21 वर्ष की उम्र में डॉ.राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शनशास्त्र पढ़ाना शुरू कर दिया। वह इसे अपना परम सौभाग्य मानते थे कि - उनको अपनी प्रकृति के अनुकूल आजीविका प्राप्त हुई थी। इस जगह उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन (पढ़ाना) किया। अपितु खुद भी भारतीय दर्शनशास्त्र और भारतीय धर्म का गहराई से अध्ययन (पढ़ना) किया। उन दिनों किसी भी व्याख्याता के लिए यह बेहद आवश्यक था कि - अध्यापन हेतु वह शिक्षण का प्रशिक्षण भी प्राप्त करें। इसीलिए सन 1910 में डॉ.राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना शुरू कर दिया। उस वक्त उनका वेतन मात्र ₹35 था। डॉ.राधाकृष्णन के दर्शनशास्त्रीय ज्ञान से दर्शनशास्त्र विभाग काफी प्रभावित हो गया था। इसीलिए उन्होंने राधाकृष्णन को दर्शनशास्त्र की कक्षाओं से अनुपस्थित रहने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन इसके बदले में यह शर्त रखी गई कि उन अनुपस्थित स्थान पर दर्शनशास्त्र की कक्षाओं में पढ़ा दे। तब राधाकृष्णन ने अपने कक्षा साथियों को 13 ऐसे प्रभावशाली व्याख्यान दिए, जिनसे वे शिक्षार्थी भी चकित रह गए। यह इसी कारण मुमकिन हो सका क्योंकि - उनकी विषय पर गहरी पकड़ थी, दर्शनशास्त्र के संबंध में दृष्टिकोण स्पष्ट था और व्याख्यान देते समय उन्होंने उपयुक्त शब्दों का चयन किया था।सन 1912 में 'मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व' शीर्षक के साथ एक लघु पुस्तिका डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने प्रकाशित की। इस लघु पुस्तक में कक्षाओं में दिए गए व्यक्तियों का संग्रहण था। इसी पुस्तक के द्वारा उनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिए उनके पास शब्दों का अतुल भंडार तो था ही लेकिन उनकी स्मरण शक्ति भी असाधारण थी।
मानद उपाधियां
यूरोप तथा अमेरिका से पुनः भारत लौटने पर डॉ. राधाकृष्णन को विभिन्न विश्वविद्यालयों ने मानद उपाधियां प्रदान कर उनकी बुद्धिमत्ता का सम्मान किया। सन 1928 की सर्दी के ऋतु में उनकी प्रथम मुलाकात पं.जवाहरलाल नेहरू से उस समय हुई, जब वह कांग्रेस पार्टी के वार्षिक अधिवेशन में सम्मिलित होने के लिए कोलकाता आए हुए थे। यद्यपि सर्वपल्ली राधाकृष्णन भारतीय शैक्षिक सेवा के सदस्य होने के कारण किसी भी राजनीतिक संभाषण में हिस्सेदारी नहीं कर सकते थे, लेकिन इसके बावजूद भी उन्होंने इस प्रबंधन की कोई परवाह नहीं की और भाषण दिया। सन 1929 में उन्हें व्याख्यान देने हेतु 'मानचेस्टर विश्वविद्यालय' द्वारा आमन्त्रित किया गया। इन्होंने मानचेस्टर तथा लन्दन में कई व्याख्यान दिये थे। डॉ राधाकृष्णन के शिक्षा संबंधी उपलब्धियों के दायरे में निचे दी गई संस्थानिक सेवा कार्यों को देखा जाता है।- सन 1931 से 1936 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
- सन 1936 से 1952 तक ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे।
- सन 1937 से 1941 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप कार्य किया।
- सन 1939 से 1948 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
- सन 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
- सन 1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
राजनीतिक जीवन
डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के प्रतिभा की अगर बात करें तो - उनकी प्रतिभा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि- स्वतंत्रता के बाद उन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वह सन 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे और इसी समय बहुत कई विश्वविद्यालयों के चेअरमन भी नियुक्त किए गए थे।अखिल भारतीय कांग्रेस यह चाहती थी कि - डॉ. राधाकृष्णन गैर राजनीतिक व्यक्ति होते हुए भी संविधान सभा के सदस्य बनाए जाए। जवाहरलाल नेहरू चाहते थे कि - डॉ. राधाकृष्णन के संभाषण वक्तृत्व प्रतिभा का उपयोग 14 और 15 अगस्त 1947 की रात्रि को उस समय किया जाए, जब संविधान सभा का ऐतिहासिक सत्र आयोजित किया जाना हो। डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन को यह निर्देश दिए गए थे कि - वह अपना संबोधन रात्रि ठीक 12:00 बजे समाप्त करें। क्योंकि, इसके बाद ही नेहरू जी के नेतृत्व में संवैधानिक संसद द्वारा शपथ ली जानी थी। राधाकृष्णन ने बिल्कुल ऐसा ही किया और रात्रि ठीक 12:00 बजे अपने संबोधन को रोक दिया। इस बात की जानकारी पंडित नेहरू और राधाकृष्णन के अलावा किसी को नहीं थी।
राजनयिक कार्य
सन 15 अगस्त 1947, भारत को आजादी मिलने के बाद डॉ. राधाकृष्णन से आग्रह किया गया कि - वह मातृभूमि की सेवा के लिए विशिष्ट राजदूत के रूप में सोवियत संघ के साथ राजनीतिक कार्यों की पूर्ति करें। इस प्रकार विजयलक्ष्मी पंडित का उन्हें नया उत्तराधिकारी चुना गया। पंडित नेहरू के इस चयन पर कई व्यक्तियों ने आश्चर्य व्यक्त किया कि - एक दर्शन शास्त्री को राजनयिक सेवाओं के लिए क्यों चुना गया? उन्हें यह डर था कि - डॉ. राधाकृष्णन की योग्यताएं सौंपी गई जिम्मेदारी के लिए अनुकूल है या नहीं?डॉ. राधाकृष्णन ने सबके मुंह पर ताला लगाते हुए यह साबित कर दिया कि - मास्को में नियुक्त भारतीय राजनयिकों में वे सबसे बेहतर थे। वह एक गैर परम्परावादी राजनयिक थे। जो मन्त्रणाएँ देर रात्रि होती थीं, वे उनमें रात्रि 10 बजे तक ही भाग लेते थे, क्योंकि 10 बजे के बाद उनके शयन का समय हो जाता था।
डॉ. राधाकृष्णन कभी भी नियमों के दायरे में बंधे नहीं थे। जब राधाकृष्णन एक शिक्षक थे, तभी भी वह कक्षा में 20 मिनट देरी से आते थे और 10 मिनट पूर्व ही चले जाते थे। उनका कहना था कि - कक्षा में उन्हें जो व्याख्या देना होता था, वह 20 मिनट के पर्याप्त समय में संपन्न हो जाता था। लेकिन, इसके बावजूद भी वह विद्यार्थियों के प्रिय तथा आदरणीय शिक्षक बने रहे।
उपराष्ट्रपति पद
संविधान के अंतर्गत उपराष्ट्रपति का नया पद सृजित किया गया था। पंडित जवाहरलाल नेहरु जी ने पुनः एक बार लोगों को चौकते हुए राधाकृष्णन का चयन कर दिया। राधाकृष्णन तथा अन्य लोगों को इस बात का आश्चर्य हो रहा था कि - इस पद के लिए किसी कांग्रेस पार्टी के राजनीतिज्ञ का चुनाव क्यों नहीं किया गया?अंततः सन 1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉ राधाकृष्णन उपराष्ट्रपति निर्वाचित किए गए। उन्होंने उपराष्ट्रपति के रूप में राज्यसभा में अध्यक्ष का पदभार संभाला। यानी सन 1952 में वह भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति बनाए गए।
जिन लोगों को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की प्रतिभा पर शंका हो रही थी। उन सभी लोगों ने बाद में पंडित नेहरू के चयन को सार्थक समझा। क्योंकि उपराष्ट्रपति के रूप में एक गैर राजनीतिज्ञ व्यक्ति ने सभी राजनीतिज्ञों को प्रभावित किया। संसद के सभी सदस्यों ने राधाकृष्णन को उनके कार्य व्यवहार के लिए काफी सराहा। उनकी सदाशयता, दृढ़ता और विनोदी स्वभाव को लोग आज भी याद करते हैं।
शिक्षक दिवस
हमारे देश के दूसरे तथा अनोखे, अनूठे, अप्रतिम राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस 5 सितंबर को प्रतिवर्ष संपूर्ण भारत में शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार भी प्रदान किए जाते हैं। डॉ राधाकृष्णन हमेशा छात्रों से प्रेम करते थे। उन्हें प्रेरित करते थे। छात्र भी उनसे बेहद लगाव रखते थे। किसी भी विषय को पढ़ाने से पूर्व उसका अध्ययन करते और बहुत ही सरल तरीके से विद्यार्थियों के साथ साझा करते थे। वह एक महान शिक्षक थे।भारत रत्न
सन 1931 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा राधाकृष्णन को 'सर' की उपाधि प्रदान की गई थी। लेकिन, भारत को स्वतंत्र मिलने के बाद उसका महत्व डॉ. राधाकृष्णन के लिए समाप्त हो चुका था। जब वह उपराष्ट्रपति बने तो स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जी ने 1954 में उन्हें उनकी महान दार्शनिक व शैक्षणिक उपलब्धियों के लिए देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया।डॉ. राधाकृष्णन द्वारा लिखी किताबें
- द एथिक्स ऑफ़ वेदांत (The Ethics of Vedanta)
- द फिलासफी ऑफ़ रवीन्द्रनाथ टैगोर (The Philosophy of Rabindranath Tagore)
- माई सर्च फॉर ट्रूथ (My search for truth)
- द रेन ऑफ़ कंटम्परेरी फिलासफी (The Rain of Contemporary Philosophy)
- रिलीजन एंड सोसाइटी (Religion and Society)
- इंडियन फिलासफी (Indian Philosophy)
- द एसेंसियल ऑफ़ सायकलॉजी (The Essential of Psychology)
***दोस्तों, 17 अप्रैल 1975 को डॉ. राधाकृष्णन का लम्बी बीमारी के बाद ह्रदय रुक जाने की वजह से मृत्यु हो गई और हमने इसी दिन भारत के एक एक महान राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, शिक्षाविद, विचारक को खो दिया।
हमें उम्मीद है दोस्तों - हमारे द्वारा दी गई है जानकारी आप सभी दोस्तों को बेहद पसंद आई होगी और आप इसे अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर जरुर शेयर करेंगे। साथ ही साथ कमेंट बॉक्स में दी गई जानकारी के बारे में अपनी राय जरूर देंगे क्योंकि, दोस्तों पता है ना कमेंट बॉक्स आपका ही है।
Post a Comment
इस आर्टिकल के बारे में आप अपनी राय नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं।