Biography of Dr. Bhagwan Das - With PDF Download - Technical Prajapati |
डॉ. भगवान दास का जीवन परिचय
भगवान दास (अंग्रेजी: Bhagwan Das, जन्म- 12 जनवरी, 1869 वाराणसी; मृत्यु- 18 सितम्बर 1958) : भगवान दास का जन्म 12 जनवरी 1869 में उत्तर प्रदेश के वाराणसी में हुआ था। वाराणसी के एक समृद्ध साह परिवार के वे सदस्य थे। इनके पिता श्री का नाम साह माधव दास था। जोकि वाराणसी के कुछ चुनिंदा प्रतिष्ठित और धनी व्यक्तियों में गिने जाते थे। ऐश्वर्या, धन-संपदा के वारिस होने के बावजूद भी भगवान दास के रोम-रोम में देश-भक्ति, दान-दक्षिणा जैसे संस्कार पूर्णता: समाहित थे। यह सभी संस्कार उनको उनके पूर्वजों से प्राप्त थे; इन संस्कारों का सदुपयोग वह देश की सेवा कर के करना चाहते थे।शिक्षा
भगवान दास की प्रारंभिक शिक्षा वाराणसी से ही प्रारंभ हुई। उन्होंने तीव्र बुद्धि क्षमता के कारण केवल 12 वर्ष की आयु में ही हाई स्कूल की परीक्षा को उत्तीर्ण कर लिया था। दोस्तों मजे की बात तो यह है कि - अध्ययन के दौरान भगवान दास ने संस्कृत, हिंदी, अरबी, उर्दू, फारसी जैसी कई भाषाओं में अपनी अच्छी पकड़ बना ली थी। इसके पश्चात वाराणसी के क्वींस कॉलेज से इंटरमीडिएट और b.a की परीक्षा संस्कृत, दर्शन-शास्त्र, मनोविज्ञान और अंग्रेजी विषयों में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की थी।***दोस्तों उनके पिताजी चाहते थे कि - उनका पुत्र डिप्टी पद पर तैनात हो जाए और इसी अधूरी इच्छा को पूर्ण करने के उद्देश्य से उन्होंने भगवान दास को आगे की शिक्षा ग्रहण करने के लिए कलकत्ता (कोलकाता) भेज दिया।
सन 1887 में उन्होंने अपने 18 वर्ष की आयु अवस्था के दौरान ''पाश्चात्य दर्शन'' में m.a. की उपाधि प्राप्त की। अपनी इच्छा ना होते हुए भी पिताजी की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से वह डिप्टी पद पर नियुक्त हो गए। हालांकि पद पर कार्यरत होने के बावजूद भी उनका ध्यान अध्ययन और लेखन कार्य में जारी रहा। कुछ वर्षों के बाद उनके पिताजी की मृत्यु हो जाने के बाद उन्होंने डिप्टी पद को त्यागपत्र दे दिया। वह 1890 से 1898 तक उत्तर प्रदेश में विभिन्न जिलों में मजिस्ट्रेट के रूप में सरकारी नौकरी कर रहे थे।
कार्यक्षेत्र
दोस्तों डॉक्टर दास को लेखन से बहुत प्यार था। मात्र 23-24 वर्ष की आयु में ही उन्होंने ''साइंस ऑफ पीस'' और ''साइंस ऑफ इमोशन'' नामक पुस्तकों की रचना कर ली थी। दोस्तों उस समय एक ओर देश की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन किए जा रहे थे। वहीं दूसरी ओर अंग्रेजों के शासक के कारण भारतीय भाषा, सभ्यता और संस्कृति नष्ट भ्रष्ट हो रही थी और उसे बचाने के गंभीर प्रयास किए जा रहे थे। इन्हीं प्रयासों के अंतर्गत प्रसिद्ध समाजसेवी का एनी बेसेंट चाहती थी कि - वाराणसी में एक ऐसा कॉलेज स्थापित हो जो अंग्रेजी के प्रभाव से पूर्णता मुक्त हो। जैसे ही दास को इसका पता चला; उन्होंने तन मन धन से इस महान कार्य उद्देश्य को पूरा करने का प्रयत्न किया और उन्हीं के सार्थक प्रयासों के फलस्वरूप वाराणसी में सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना की जा सकी।इसके तत्पश्चात दास 1899 से 1914 तक सेंट्रल हिंदू कॉलेज के संस्थापक सदस्य और अवैतनिक मंत्री रहे। इसके पश्चात पंडित मदन मोहन मालवीय ने वाराणसी में हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित करने का विचार किया; तब डॉक्टर दास ने उनके साथ मिलकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया और पूर्व में स्थापित सेंट्रल हिंदू कॉलेज का 1914 में काशी विश्वविद्यालय के रूप में परिणत कर दिया। डॉ. भगवान दास काशी विश्वविद्यालय के संस्थापक सदस्य ही नहीं बल्कि उसके प्रथम कुलदीप भी रहे।
स्वतंत्रता में भाग
दोस्तों, भगवान दास, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के चरित्र व गांधीजी के विचार धारा से काफी प्रभावित थे। गांधी जी की प्रेरणा के चलते उन्होंने सन 1921 में ''सविनय अवज्ञा आंदोलन'' में चढ़ बढ़ कर हिस्सा लिया। एक आंदोलनकारी होने के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। असहयोग आंदोलन में भी उन्होंने अपनी सहभागिता बढ़ चढ़ कर दर्ज कराई थी। इन्हीं सभी कारणों की वजह से वह जनता के समक्ष कांग्रेसी नेता व स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में उभरे। असहयोग आंदोलन के समय भगवान दास काशी विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उसी समय देश के भावी नेता श्री. लाल बहादुर शास्त्री भी वहां शिक्षा ग्रहण कर रहे थे।दोस्तों सन 1922 में भगवान दास कांग्रेस और गांधी जी से पूर्णता जुड़ गए थे। इसके पश्चात सन 1922 में ही वाराणसी के म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनाव में कांग्रेस को भारी विजय दिलाई और म्यूनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष चुने गए। इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक सुधार कार्य कराए। इसी के साथ वे अध्ययन और अध्यापन कार्य से भी जुड़े रहे। विशेष रूप से हिंदी में उत्थान और विकास में उनका योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय रहा।
दोस्तों आपको बता दें - हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में भगवान दास ने महत्वपूर्ण कार्य किए और इन्हीं महत्वपूर्ण कार्यों के कारण उन्हें अनेक विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधि से अलंकृत किया गया।
सन 1935 के कौंसिल के चुनाव में वे कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। जिसके पश्चात वे सक्रिय राजनीति से दूर रहने लगे और भारतीय दर्शन, धर्म अध्ययन और लेखन कार्य में व्यस्त रहने लगे। इन विषयों में उनकी विद्वता, प्रकांडता और ज्ञान से महान भारतीय दार्शनिक श्री. सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी बहुत प्रभावित थे और डॉ. भगवान दास उनके लिए आदर्श व्यक्तिमत्व बने।
योगदान और व्यक्तिमत्व
दोस्तों डॉ. भगवान दास का योगदान भारतीय शिक्षा अवस्था को सुदृढ़ और विकसित करने में जितना माना जाता है; उतना ही योगदान देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भी महत्वपूर्ण माना जाता है। इसी के साथ उनका योगदान भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्र को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित करने में भी माना जाता है। ''वसुदैव कुटंबकम'' का मतलब सारा ''विश्व एक ही परिवार है'' की भावना डॉ. दास ने संपूर्ण विश्व को दर्शन और धर्म को प्राचीन और सामयिक परिस्थितियों के अनुरूप एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया।कोटी,-कोटी बलि जाऊं, देश प्यारे, हिंद पर।
समस्त सुख, समृद्धि, अर्पित, सर्वत्र वतन तुझ पर।।
अंतिम आरजू, सर्वोपरि, राष्ट्र भक्ति, अहले वतन की।।
ऊपर प्रस्तुत की गई पंक्तियां ऐसे महापुरुषों के व्यक्तित्व पर सटीक साबित होती हैं। जिन्होंने अपने ऐश्वर्या को त्याग कर देश हित के लिए अपना जीवन एक सन्यासियों के जैसा व्यतीत किया हो, राष्ट्र सेवा को पूर्णता: समर्पित किया हो।
जी हां! बिल्कुल ऐसे ही व्यक्तिमत्व के डॉ.भगवान दास थे; उन्हें अपने जन्म के तत्पश्चात ही अपार धन और सम्मान प्राप्त हुआ। हालांकि भगवान दास को देश की सेवा करने की इच्छा थी। इसीलिए उन्होंने उन सभी लाभों का त्याग कर दिया। डॉ. भगवान दास का जीवन भारतीय संस्कृति और महर्षियों की परंपरा का ही प्रतिनिधित्व करता रहा। वह गृहस्थ थे, फिर भी वह सन्यासियों की भांति साधारण खान-पान और वेशभूषा में रहते थे। वह आजीवन प्रत्येक स्तर पर प्राचीन भारतीय संस्कृति के पुरोधा बने। इसी के साथ सन 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ तब डॉ. भगवान दास की देश सेवा और विद्वत्ता को देखते हुए उनसे सरकार में महत्वपूर्ण पद संभालने का अनुरोध भी किया गया। परन्तु, प्रबल गांधीवादी विचारों के डॉ. भगवान दास ने आदरपूर्वक अस्वीकार कर के दर्शन और धर्म शिक्षा के क्षेत्र को ही प्राथमिकता दी और अंतिम सांस तक इस से जुड़े रहे।
पुरस्कार - सम्मान
सन 1955 में भारत सरकार की ओर से भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया।डॉ. भगवान दास की स्मृति में 1969 में एक डाक-टिकट जारी किया गया। जिसे आप निचे दी गई इमेज में देख सकते है।
Postage stamp of Dr. Bhagwan Das - Technical Prajapati |
निधन
भारत का सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार - भारत रत्न सम्मान से सम्मानित होने के कुछ वर्ष पश्चात ही 18 सितंबर 1958 में लगभग 89 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। आज भले ही डॉ. भगवान दास हमारे बीच नहीं है; किंतु, भारतीय दर्शन, धर्म और शिक्षा पर किया गया उनका कार्य सदैव हम सभी के साथ जीवित रहेगा।इस जानकारी की PDF File Download
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